यह एक ऐसी लम्बी कविता है जो भोजपुरी भाषा का पुट लिए हुए गांव की एक विरहन के भाव परोसती है ,जिसका पति परदेश में है उसकी बाट जोहती , जिसकी आस में आँख विछाये मन में अनगिनत हिलोरों का सामना करती ,मन में कैसे-कैसे अंदेशे उठते हैं ,उन आशंकाओं का दंश झेलती प्रतीक्षारत आँखों में सपनों की झड़ी लगाती न जाने किन-किन विचारों को जन्म देती है ,उसी का मनोभाव मैंने अपनी इस कविता में पिरोया हैं । यह कविता गांव की पृष्ठभूमि से जुड़ाव महसूस कराएगी । आगे ……।
'' कथा एक विरहणी की ''
मन-मोहक पवन बहे पुरवा
मधुमास सजा वन-वन में
नगर-डगर सब चहक उठे
मह-मह महक भरा नभ में ।
मैं पिया विरह में अकुलाती
घबराती मन ही मन में
बिलखाती झुलसाती यादें
रंग पीला पात धरा तन ने ।
प्रियतम तुम तो भूल गए
सदा याद तुम्हारी आती रही
रो ना सकी औ सो ना सकी
ये रोग सदा तड़पाती रही ।
प्रियतम तुम तो भूल गए
सदा याद तुम्हारी आती रही
रो ना सकी औ सो ना सकी
ये रोग सदा तड़पाती रही ।
दिन दहकता रात धधकती
फिरूँ जोगन बन घर आँगन
तन राग-विराग गलाती रही
बेंध गया मन कानन सावन ।
राह देखते थक गयीं अँखियाँ
जल-जल नेह का बुझा दिया
मन में दुबिधा समझ न आये
दिन रात धधकता मेरा हिया
किस तरह बिताऊं क्षण-पल
चैन न आवे विकल जिया रे
फिर चौखट आ गया वसंत
घर नहीं आये अजहुँ पिया रे ।
फिर चौखट आ गया वसंत
घर नहीं आये अजहुँ पिया रे ।
सौंह दे अपनी सौ बार कहा
नयनों से नीर बहा छल-छल
प्रिये बरबस आँसू नहीं बहाना
मेरी ना तकना राहें हर पल ।
सावन बीत भले ही जाए
पर खेलेंगे होली हम संग
कहा विहँस परदेश में भी
छाएंगे तेरी ही यादों के रंग ।
छाएंगे तेरी ही यादों के रंग ।
आँखों के आँसू पीकर बोले
पी मुस्कान बिखेरे मुख पर
हम भी हृदय हीन नहीं जी
यूँ तड़पाओ नहीं जी भरकर ।
चलो ख़ुशी से विदा करो
ना छलकाओ नैनों से पानी
चाकरी खातिर तन विदेश
मन पास तुम्हारे ही रानी ।
हम भी बोले जाओ पिया
पर याद मेरी फरियाद रहे
रब रखे कुशल से तुम्हें वहाँ
मन में ना कोई अवसाद रहे ।
तक दिवस बिताऊँगी पथ में
बस इतनी सी अरदास है ये
यहाँ एक विरहणी है घर में
तुम्हें हरदम मेरी याद रहे ।
परदेश में जा बिसरा देंगे
ऐसी घोर विपति बरपा देँगे
जरा भी यदि अंदेशा होता
सखी जाने को तरसा देते ।
गुजर-बसर थोड़े में कर लेते
मद्धिम खाते ग़म कम कर लेते
प्रिय संग बिताती उमस दुपहरी
उनके अंक में सर्दी की झुरझुरी ।
जब-जब कोयल कूक लगाये
वन पपिहा पिऊ-पिऊ पिहके
सखी जाने को तरसा देते ।
गुजर-बसर थोड़े में कर लेते
मद्धिम खाते ग़म कम कर लेते
प्रिय संग बिताती उमस दुपहरी
उनके अंक में सर्दी की झुरझुरी ।
जब-जब कोयल कूक लगाये
वन पपिहा पिऊ-पिऊ पिहके
धक् लगे कटारी बिंधे कलेजा
रह-रह शूल हिया में कसके ।
सब बोली बोल उपहास करें
बस मन मसोस रह जाऊँ मैं
अबीर,गुलाल उड़ा रंग कैसे
फाग बिन सजना के गाऊँ मैं ।
सोने सा गात मलिन हुआ रे
दिन-प्रतिदिन कुम्हलाय रही
क्या सोच सताए किस कारन
पूछें सखियाँ क्यों मुरझाय रही ।
रह-रह शूल हिया में कसके ।
सब बोली बोल उपहास करें
बस मन मसोस रह जाऊँ मैं
अबीर,गुलाल उड़ा रंग कैसे
फाग बिन सजना के गाऊँ मैं ।
सोने सा गात मलिन हुआ रे
दिन-प्रतिदिन कुम्हलाय रही
क्या सोच सताए किस कारन
पूछें सखियाँ क्यों मुरझाय रही ।
साज सिंगार क्यों छोड़ दिया
किससे रूठ ये घाव छिपाय रही
मेरी अल्हड़ सी बिन्दास सखी
क्यों तूं हल्दी सी पियराय रही ।
तुम मौज़ करो परदेश पिया
यहाँ तन आग वसन्त लगाये
मन कैसे धीर धरे साजन जी
जिसका विदेश कंत बस जाये ।
तुम सौतन के संग विलस रहे
घुल-घुल कजरा बहता जाये
मेरी थाती लूट रही कोई हसीना
निर्मोही तेरा छल आभास दिलाये ।
जेठ,आषाढ़ मास ठण्डाया
जेठ,आषाढ़ मास ठण्डाया
कोंख धरा का भींगो गया बदरा
तन भींगा सखी मन नहीं भींगा
शोख़ फुहरा भींगो गया अंचरा ।
उमड़-घुमड़ घन घहराये
गरज-तड़क बरसे बदरा
दादुर,झींगुर वन पपिहा टेरें
नाचे मयूरा पर फहरा-फहरा ।
मन पांखी कभी उड़े मगन
कभी कटी पतंग सा गिरे धरा
कभी दम दमके मुर्झाया तन
कभी सिंगार चिढ़ावे देह जरा ।
किसके लिए मांग सुहाग भरूँ
माथे बिंदिया किसलिए सखी
किसके लिए गजरा केश सजाऊं
शूरमा अँखिया किसलिए सखी ।
हार,हूमेल शूल लगे कंगन
होंठलाली आग लगाये सखी
परदेश बिराजता देखने वाला
तन कोई साज न भाय सखी ।
जिया तरसे छलिया सावन में
होंठलाली आग लगाये सखी
परदेश बिराजता देखने वाला
तन कोई साज न भाय सखी ।
जिया तरसे छलिया सावन में
हर घर पड़े झलुवा आँगन में
सब मिली गावें कजरी मल्हार
जानें ना कब है साँझ सकार ।
घर-घर बने किसिम पकवान
मोंहें रंच न भावे तीज त्यौहार
गाँव सिवान मची चहल-पहल
मैं तेरी बाट निहारूँ बैठ दुवार ।
सुध-बुध ली नहीं तन की
पी के मन की थाह मिले ना
बस पीर नेह की अन्तर जाने
सुध-बुध ली नहीं तन की
पी के मन की थाह मिले ना
बस पीर नेह की अन्तर जाने
हाय अंसुओं से आग बुझे ना ।
कैसे भूले सजन सनेहिया
रतनारी अँखियों का कजरा
प्रीत में पग जो होते निहाल थे
तक-तक जिस जुड़े का गजरा ।
कैसे भूले सजन सनेहिया
रतनारी अँखियों का कजरा
प्रीत में पग जो होते निहाल थे
तक-तक जिस जुड़े का गजरा ।
रच-बस गए परदेश में जा
कर कैद मोंहें सोने पिंजरा
कौन कसर मेरी प्रीत रही जो
उड़ा मोंगरे के वदन से भंवरा ।
नयन नीर में कजरा बह-बह
अंगिया,अंचरा में दाग लगाए
तन ऊसर विरहा मन पर
सखी दुःख का सिंगार सजाये ।
पिया निर्मोही मोह न जाने
दिन-रात ना सूझे कुछ भी
उड़ि-उड़ि काग मुंडेरे बइठे
मैं बस हाल पूँछूँ पिउ की ।
निमिया भई सयानी दुवरा
चिरई फुदके फहरा फुनगी
बरखा फुहार लगे अंगार सखि
लखि राह पिया की देह सुलगी ।
सुनसान दुपहरी लगी तपाने
वस्ती में सबके बंद किवाड़
खोल झरोखा झाँकूँ पल-पल
कभी अगवाड़े,पिछवाड़े ठाढ़ ।
सुनसान दुपहरी लगी तपाने
वस्ती में सबके बंद किवाड़
खोल झरोखा झाँकूँ पल-पल
कभी अगवाड़े,पिछवाड़े ठाढ़ ।
चैन नहीं क्षण बाहर क्षण भीतर
दुःख किसे दिखाऊँ छाती फाड़
तूं ही बता बिन साजन सावन
तूं ही बता बिन साजन सावन
भला कैसे रोकूँ अन्तस की बाढ़ ।
हाय पूस,माघ भी बीत गए
हूक ना जाने पिया फागुन की
ग़र वो आ जावें मौसम बदले
काया खिल निखरे विरहन की ।
सुख चैन सनेही संग गया
ली ना खोज खबर लिखी पाती
काया खिल निखरे विरहन की ।
सुख चैन सनेही संग गया
ली ना खोज खबर लिखी पाती
सुख तो घर में बेशक तमाम
पर मन चीज नहीं कोई भाती ।
यादों की बाती जला पिया
करवट फेरूँ काटूँ दिन,रैना
नींद ना आवे काँटों सी लागे
सजा फूलों सा नरम बिछौना ।
देह सूख कर भई छुहारा
सेज विरह से झुलस रही
नागिन सी डँसती रैन अँधेरी
हंसी रूठ अधर पे सिसक रही ।
उड़ें तितली सरीखे सखियाँ
मैं खूँटे से बंधी गईया भाँति
सब मेंहदी,महावर रचें फिरें
मैं पी साँझ सवेरे जोहूँ पाती ।
अँखियाँ सावन,भादों हो गईं
ढूरे लोर कपोल बहे कजरा
दिन-दिन चिचुक रही तरुनाई
ऐना मुँह निहारूँ घबरा-घबरा ।
धीरज ढाढ़स भी हार गए
जा संदेश पिया को दे कागा
कैसी सजा दी कर ये छलावा
सपनों का नगर कहाँ ले भागा ।
हंसी-ख़ुशी दिन कट जाता
सखी चना चबैना सतुआ से
वस्त्र फटा पुराना तन ढँक देता
व्यंजन बना देती सूखे महुवा से ।
अँगने की तुलसी विरवा पूजूँ
नित साँझ,सवेरे दीया जला
दूनों कर जोरि के व्यथा कहूँ
माँ विपदा हर दो करो भला ।
नवकिरन बिखेर हर लेता
सूरज निस दिन गहन अँधेरा
दिन भर की तपन मिटावे चाँद
कौन निरखे उचटा मन मेरा ।
अँगने की तुलसी विरवा पूजूँ
नित साँझ,सवेरे दीया जला
दूनों कर जोरि के व्यथा कहूँ
माँ विपदा हर दो करो भला ।
नवकिरन बिखेर हर लेता
सूरज निस दिन गहन अँधेरा
दिन भर की तपन मिटावे चाँद
कौन निरखे उचटा मन मेरा ।
कुछ लोग बदा को कोस रहे
कुछ कहें तकदीर मेरी खोटी
कुछ करनी फल कहें भोग रही
मैं मुँह अँचरा ठूँस बिलख रोती ।
हरी-भरी यहाँ गोंद सखिन की
आँगन किलकारी का खिलौना
उसे नजर ना लगे किसी की
देतीं काजल का चाँद दिठौना ।
पास-पड़ोस की सभी लुगाई
बांझिन कह-कह मारें ताना
मैं मुँह पर ताला लगा हूँ बैठी
जल्दी घर पी परदेशी आना ।
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शैल सिंह
शैल सिंह
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