गुरुवार, 16 जुलाई 2015

'' कथा एक विरहणी की ''


यह एक ऐसी लम्बी कविता है जो भोजपुरी भाषा का पुट लिए हुए गांव की एक विरहन के भाव परोसती है ,जिसका पति परदेश में है उसकी बाट जोहती , जिसकी आस में आँख विछाये मन में अनगिनत हिलोरों का सामना करती ,मन में कैसे-कैसे अंदेशे उठते हैं ,उन आशंकाओं का दंश झेलती प्रतीक्षारत आँखों में सपनों की झड़ी लगाती न जाने किन-किन विचारों को जन्म देती है ,उसी का मनोभाव मैंने अपनी इस कविता में पिरोया हैं । यह कविता गांव की पृष्ठभूमि से जुड़ाव महसूस कराएगी । आगे  ……।

                         '' कथा एक विरहणी की ''


मन-मोहक पवन बहे पुरवा 
   मधुमास सजा वन-वन में 
      नगर-डगर सब चहक उठे 
         मह-मह महक भरा नभ में । 

मैं पिया विरह में अकुलाती 
   घबराती मन ही मन में 
       बिलखाती झुलसाती यादें 
          रंग पीला पात धरा तन ने ।

प्रियतम तुम तो भूल गए
    सदा याद तुम्हारी आती रही
        रो ना सकी औ सो ना सकी
           ये रोग सदा तड़पाती रही ।

दिन दहकता रात धधकती
   फिरूँ जोगन बन घर आँगन
      तन राग-विराग गलाती रही
          बेंध गया मन कानन सावन ।

राह देखते थक गयीं अँखियाँ
  जल-जल नेह का बुझा दिया
     मन में दुबिधा समझ न आये
        दिन रात धधकता मेरा हिया

 किस तरह बिताऊं क्षण-पल
     चैन न आवे विकल जिया रे
        फिर चौखट आ गया वसंत
            घर नहीं आये अजहुँ पिया रे ।

सौंह दे अपनी सौ बार कहा
    नयनों से नीर बहा छल-छल
       प्रिये बरबस आँसू नहीं बहाना
          मेरी ना तकना राहें हर पल ।

सावन बीत भले ही जाए
    पर खेलेंगे होली हम संग
       कहा विहँस परदेश में भी
           छाएंगे तेरी ही यादों के रंग ।

आँखों के आँसू पीकर बोले
     पी मुस्कान बिखेरे मुख पर
         हम भी हृदय हीन नहीं जी
            यूँ तड़पाओ नहीं जी भरकर ।

चलो ख़ुशी से विदा करो
   ना छलकाओ नैनों से पानी
       चाकरी खातिर तन विदेश
          मन पास तुम्हारे ही रानी ।

हम भी बोले जाओ पिया
    पर याद मेरी फरियाद रहे
        रब रखे कुशल से तुम्हें वहाँ
            मन में ना कोई अवसाद रहे ।

तक दिवस बिताऊँगी पथ में
   बस इतनी सी अरदास है ये
      यहाँ एक विरहणी है घर में
          तुम्हें हरदम मेरी याद रहे ।

परदेश में जा बिसरा देंगे
    ऐसी घोर विपति बरपा देँगे
       जरा भी यदि अंदेशा होता
          सखी जाने को तरसा देते ।

गुजर-बसर थोड़े में कर लेते
   मद्धिम खाते ग़म कम कर लेते
      प्रिय संग बिताती उमस दुपहरी
          उनके अंक में सर्दी की झुरझुरी ।

जब-जब कोयल कूक लगाये
   वन पपिहा पिऊ-पिऊ पिहके   
      धक् लगे कटारी बिंधे कलेजा
           रह-रह शूल हिया में कसके ।

सब बोली बोल उपहास करें
   बस मन मसोस रह जाऊँ मैं
       अबीर,गुलाल उड़ा रंग कैसे
           फाग बिन सजना के गाऊँ मैं ।

सोने सा गात मलिन हुआ रे
   दिन-प्रतिदिन कुम्हलाय रही
       क्या सोच सताए किस कारन
          पूछें सखियाँ क्यों मुरझाय रही ।

साज सिंगार क्यों छोड़ दिया
   किससे रूठ ये घाव छिपाय रही
       मेरी अल्हड़ सी बिन्दास सखी
           क्यों तूं हल्दी सी पियराय रही ।

तुम मौज़ करो परदेश पिया
    यहाँ तन आग वसन्त लगाये
       मन कैसे धीर धरे साजन जी
           जिसका विदेश कंत बस जाये ।

तुम सौतन के संग विलस रहे
    घुल-घुल कजरा बहता जाये
         मेरी थाती लूट रही कोई हसीना‌ 
            निर्मोही तेरा छल आभास दिलाये ।

जेठ,आषाढ़ मास ठण्डाया
    कोंख धरा का भींगो गया बदरा‍
        तन भींगा सखी मन नहीं भींगा 
             शोख़ फुहरा भींगो गया अंचरा ।

उमड़-घुमड़ घन घहराये
    गरज-तड़क बरसे बदरा
       दादुर,झींगुर वन पपिहा टेरें
            नाचे मयूरा पर फहरा-फहरा ।

मन पांखी कभी उड़े मगन
   कभी कटी पतंग सा गिरे धरा
       कभी दम दमके मुर्झाया तन
            कभी सिंगार चिढ़ावे देह जरा ।

किसके लिए मांग सुहाग भरूँ
    माथे बिंदिया किसलिए सखी
      किसके लिए गजरा केश सजाऊं
          शूरमा अँखिया किसलिए सखी ।

हार,हूमेल शूल लगे कंगन
    होंठलाली आग लगाये सखी
        परदेश बिराजता देखने वाला
            तन कोई साज न भाय सखी ।

जिया तरसे छलिया सावन में
     हर घर पड़े झलुवा आँगन में
         सब मिली गावें कजरी मल्हार
             जानें ना कब है साँझ सकार ।

घर-घर बने किसिम पकवान
   मोंहें रंच न भावे तीज त्यौहार
      गाँव सिवान मची चहल-पहल 
          मैं तेरी बाट निहारूँ बैठ दुवार ।

सुध-बुध ली नहीं तन की
   पी के मन की थाह मिले ना
       बस पीर नेह की अन्तर जाने
            हाय अंसुओं से आग बुझे ना ।

कैसे भूले सजन सनेहिया
   रतनारी अँखियों का कजरा
        प्रीत में पग जो होते निहाल थे
           तक-तक जिस जुड़े का गजरा ।

रच-बस गए परदेश में जा
    कर कैद मोंहें सोने पिंजरा
        कौन कसर मेरी प्रीत रही जो
             उड़ा मोंगरे के वदन से भंवरा ।

नयन नीर में कजरा बह-बह
   अंगिया,अंचरा में दाग लगाए
        तन ऊसर विरहा मन पर
            सखी दुःख का सिंगार सजाये ।

पिया निर्मोही मोह न जाने
   दिन-रात ना सूझे कुछ भी
      उड़ि-उड़ि काग मुंडेरे बइठे
           मैं बस हाल पूँछूँ पिउ की ।

निमिया भई सयानी दुवरा
    चिरई फुदके फहरा फुनगी
        बरखा फुहार लगे अंगार सखि
             लखि राह पिया की देह सुलगी ।

सुनसान दुपहरी लगी तपाने
    वस्ती में सबके बंद किवाड़
       खोल झरोखा झाँकूँ पल-पल
            कभी अगवाड़े,पिछवाड़े ठाढ़ ।

 चैन नहीं क्षण बाहर क्षण भीतर 
    दुःख किसे दिखाऊँ छाती फाड़
         तूं ही बता बिन साजन सावन
              भला कैसे रोकूँ अन्तस की बाढ़ ।

हाय पूस,माघ भी बीत गए
   हूक ना जाने पिया फागुन की
      ग़र वो आ जावें मौसम बदले
         काया खिल निखरे विरहन की ।

सुख चैन सनेही संग गया
     ली ना खोज खबर लिखी पाती
         सुख तो घर में बेशक तमाम
             पर मन चीज नहीं कोई भाती ।

यादों की बाती जला पिया
    करवट फेरूँ काटूँ दिन,रैना
        नींद ना आवे काँटों सी लागे
            सजा फूलों सा नरम बिछौना ।

देह सूख कर भई छुहारा
   सेज विरह से झुलस रही
      नागिन सी डँसती रैन अँधेरी
          हंसी रूठ अधर पे सिसक रही ।

उड़ें तितली सरीखे सखियाँ 
   मैं खूँटे से बंधी गईया भाँति
       सब मेंहदी,महावर रचें फिरें
          मैं पी साँझ सवेरे जोहूँ पाती ।

अँखियाँ सावन,भादों हो गईं
    ढूरे लोर कपोल बहे कजरा
       दिन-दिन चिचुक रही तरुनाई
          ऐना मुँह निहारूँ घबरा-घबरा ।

धीरज ढाढ़स भी हार गए
   जा संदेश पिया को दे कागा
       कैसी सजा दी कर ये छलावा
           सपनों का नगर कहाँ ले भागा ।

हंसी-ख़ुशी दिन कट जाता
   सखी चना चबैना सतुआ से
       वस्त्र फटा पुराना तन ढँक देता 
            व्यंजन बना देती सूखे महुवा से ।

अँगने की तुलसी विरवा पूजूँ
   नित साँझ,सवेरे दीया जला
       दूनों कर जोरि के व्यथा कहूँ
           माँ विपदा हर दो करो भला ।

नवकिरन बिखेर हर लेता 
   सूरज निस दिन गहन अँधेरा
       दिन भर की तपन मिटावे चाँद
           कौन निरखे उचटा मन मेरा ।

कुछ लोग बदा को कोस रहे
    कुछ कहें तकदीर मेरी खोटी
        कुछ करनी फल कहें भोग रही
            मैं मुँह अँचरा ठूँस बिलख रोती ।

हरी-भरी यहाँ गोंद सखिन की
    आँगन किलकारी का खिलौना
        उसे नजर ना लगे किसी की
             देतीं काजल का चाँद दिठौना ।

पास-पड़ोस की सभी लुगाई
   बांझिन कह-कह मारें ताना
       मैं मुँह पर ताला लगा हूँ बैठी
           जल्दी घर पी परदेशी आना ।

                               सर्वाधिकार सुरक्षित 
                                      शैल सिंह
     

         







       
         



         
         


           





 


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