शनिवार, 27 अगस्त 2016

डर लगता है

       '' डर लगता है ''


मैया इस देश न आऊँगी                      
रेप ,गैंगरेप सुन डर लगता है
देख भयावह दुनिया की
तस्वीर से बेहतर लगता है
कि कोंख में ही मर जाऊँ
घर के लोग से भी डर लगता है ,

यौवन की दहलीज चढ़ूँ या
मेरा धूल में बचपन खेले
चाहे शैशव लोटे खटोले पर
या उम्र के किसी पड़ाव के मेले
कब हैवानों की बलि चढ़ जाऊँ
मर्दों की बदनीयत से डर लगता है ,

क्या तुझे पता है ये भी माँ ,कि
माँ ,बहन ,बेटी ,बहू की कड़ी हूँ मैं
फिर भी रिश्तों की बुरी नियत पे
कब-कब किसकी ग्रास चढ़ी हूँ मैं
अस्मत के हजारों चिथड़े पर भी
मौन रहना इज्जत का डर लगता है ,

कब ,कहाँ , पग-पग, पल-पल
तुम मेरे कष्टों का संहार करोगी
कैसे कुत्तों द्वारा मेरा जिस्म नोंचना
पालनहारन नैनों के सम्मुख देखोगी
तेरी बेटी ही दहेज़ की बलि चढ़ेगी
घुट-घुट जीने मरने से डर लगता है ,

देख सफेदपोशों का छुपा मुख़ौटा
काँपे बूटा-बूटा पत्ता-पत्ता थर-थर
जाने कब आ जाये आंधी का झोंका
और गिरूँ चटाख शाख़ से लड़कर
ऐसे कमजोर शाख़ की बदहाली पर
समाज के क्रूर चाल से डर लगता है,

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का ,
नारा बुलन्द हुआ क्या इसीलिए है
हाट भोग विलास का उपहार सजा
ऐ वासना के शिकारियों तेरे लिए है
मैया भूले से भी इस देश न लाना
नरभक्षी भूखे भेडियों से डर लगता है ।

                                  शैल सिंह








कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें