शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

" महके तेरे गंध सी मह-मह पुरवाई "

रूत सावन है अलमस्त सुहावन
भरे उमंग,तरंग लगे उर वृन्दावन
रैना अंधेरी जले जुग-जुग जुगनूं 
भरे प्रकृति में है ख़ुश्बू मनभावन ।

नभ छाई घटा घनघोर बलमु जी
तड़क-तड़क  तड़ गरजे  बिजुरी
मग आँखें  बिछा  तकूं  राह  तेरी
घर आओ पिया,संग खेलूं कजरी ।

अस बरसे अंखिया भींजे अंगिया
ले मदमस्त सवनवां जब अंगड़ाई
उठे सरर-सरर-सर्र मन में हिलोरा
महके तेरे गंध सी मह-मह पुरवाई ।

ओढ़ हरी चूनर लहकें वन-उपवन
पी संग चंचल शोख़ हुईं सखियां
बूंदों की छम-छम से गूंजे सरगम
टह-टह सहन में छिटकी चंदनियां ।

तुम बिना प्रीत भरा अंजन,कजरा
कौन देखे कंगन,केश सजा गजरा
बजे छन-छन पांव पाजेब निगोड़ी
लगे बिरथ सिंगार रची द्वार रंगोली ।

टिसही छिनाल बदरिया सावन की
तन सुलगाती विराग में साजन की
बरसे रिम-झिम कारा बावरा बदरा
समेटती फुहरा,मुदित पसरा अंचरा ।

क्यों स्मृति के सिरहाने देते दस्तक
सुधि में तपती देख आ छूके मस्तक
लगे जीवन पहाड़ रैना दिवा सरीखी
मारे डंक सेज लगे घर सूना अबतक ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                     शैल सिंह